Monday, September 3, 2012

हिंदी अनुवाद की भूमिका


(एंथनी ब्रेवेर की किताब का हिंदी अनुवाद मैंने किया है जो ग्रंथशिल्पी प्रकाशन से 'साम्राज्यवाद के मार्क्सवादी सिद्धांत' शीर्षक से छपेगी। उसके लिए अमर फ़ारूक़ी ने अलग से भूमिका लिखी है। प्रस्तुत लेख उसी का हिंदी अनुवाद है।)                
साम्राज्यवाद का इतिहास कैरिबियाई सागर में क्रिस्टोफर कोलम्बस के (1492) और हिंद महासागर में वास्को डि गामा के (1498) प्रवेश से शुरू होता है पहली घटना का परिणाम अमरिकी महाद्वीप की विजय था तो दूसरी घटना का नतीजा एशिया और अफ़्रीका के अनेक हिस्सों की गुलामी निकला । सन 1500 के बाद की लगभग तीन सदियों तक स्पेन, पुर्तगाल, नीदरलैंड, इंग्लैंड और फ़्रांस वे प्रमुख यूरोपीय देश थे जो गैर यूरोपीय मुल्कों में उपनिवेश कायम करने में लगे रहे । स्पेन और पुर्तगाल सोलहवीं सदी की प्रमुख औपनिवेशिक शक्ति थे । वर्तमान संयुक्त राज्य (अमरीका) के दक्षिण के समूचे अमरीकी महाद्वीप को उन्होंने आपस में बाँट लिया (पुर्तगाल के मुकाबले स्पेन का प्रभुत्व अमरीका में अधिक विस्तृत था) । दुनिया के जिस हिस्से को लैटिन अमरीका कहा गया वह उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध तक प्रत्यक्ष यूरोपीय शासन के मातहत रहा । एशिया में चीन से लेकर फारस की खाड़ी तक पुर्तगाल के अनेक उपनिवेश थे । सत्रहवीं सदी में इनकी जगह डच (नीदरलैंड) ने ले ली । सन 1600 आते आते एशिया और यूरोप के बीच उत्तमाशा अंतरीप के रास्ते होने वाले समुद्री व्यापार पर डच ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार हो गया । उस समय एशिया और यूरोप के बीच व्यापार मुख्य रूप से एशियाई गोल मिर्च (और लौंग, जायफर और जावित्री जैसे कुछ अन्य मसालों) का था । एशिया के आपसी व्यापार पर भी डच कंपनी का ही दबदबा था । पुर्तगाली और डच लोगों ने अपनी प्रभुता को स्थापित करने के लिए बड़े पैमाने पर हिंसा का सहारा लिया । बहुत ही कम कीमत पर (या मुफ़्त) माल प्राप्त करने के लिए और एशिया में समुद्री व्यापार का पारंपरिक व्यावसायिक जाल तोड़ देने के लिए वे अपनी उन्नत सैन्य शक्ति का सहारा लेते थे । चूँकि इंडोनेशिया में भी मसालों का उत्पादन होता था इसलिए डचों ने उस क्षेत्र में उपनिवेश बनाये । जिस डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्रहवीं सदी की शुरुआत में उत्तमाशा अंतरीप (आज के दक्षिण अफ़्रीका में) पर कब्जा किया था उसी ने यूरोपीय प्रवासियों को अंतरीप के इर्द गिर्द फ़ार्मिंग शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया और इस तरह दक्षिण में गोरों के उपनिवेश बनने और स्थानीय लोगों पर उनकी जीत की प्रक्रिया शुरू हुई ।
अठारहवीं सदी की शुरुआत में फ़्रांस और इंग्लैंड बड़ी औपनिवेशिक ताकतों के रूप में उभरे । सौ साल तक दोनों दुनिया पर प्रभुत्व के लिए लड़ते रहे जो नेपोलियन के युद्ध कहे जाते हैं । नेपोलियन की हार के साथ सौ साल के लिए इंग्लैंड की बढ़त की गारंटी हो गयी । 1815 से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध के छिड़ने तक अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी अर्थतंत्र पर बिटेन ही हावी रहा । इस युग में ब्रिटेन की नौसैनिक ताकत को चुनौती देने वाला कोई नहीं था जिसकी वजह से वह विशाल साम्राज्य को बना और टिका सका । बहरहाल अंतत: बिटेन के अर्थतंत्र ने उसे दुनिया की प्रधान औपनिवेशिक शक्ति बना डाला । अठारहवीं सदी के मध्य से शुरू हुए इंग्लैंड के उद्योगीकरण ने उसे दुनिया का सबसे आगे बढ़ा हुआ अर्थतंत्र बना दिया । यह निरा संयोग नहीं कि औद्योगिक क्रांति के पहले चरण को उसी दौर में (1760-80) गति मिली जब अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल (और बिहार और उड़ीसा के कुछ हिस्सों) को जीता । प्लासी (1757) और बक्सर (1764) की लड़ाई ने कंपनी को भारत की बड़ी भूभागीय ताकत बना दिया । कंपनी के कर्मचारियों ने जहाजों में भर कर बंगाल की प्रत्यक्ष लूट का माल तो इंग्लैंड भेजा ही, पूर्वी भारत के राजस्व ने कंपनी को इस लायक बना दिया कि वह इस राजस्व का प्रयोग करके घरेलू बाज़ार में सूती वस्त्रों की खपत के लिए कच्चा माल खरीद ले और बदले में कोई कीमती धातु भारत न लाये । इस तरह भारत से इंग्लैंड को कर की निरंतर अदायगी का प्रवाह शुरू हुआ । सोलहवीं सदी से जारी अटलांटिक गुलाम व्यापार में फ़्रांस और ब्रिटेन की भागीदारी (अफ़्रीका से पकड़े गये गुलाम अटलांटिक को पार कर गन्ने, तंबाकू और कपास के प्लांटेशनों पर काम करने के लिए अमरीकी महाद्वीप लाये जाते थे) से भी इन देशों के अर्थतंत्र को बेहिसाब मुनाफ़ा हुआ ।
1870 दशक से ब्रिटेन के आर्थिक दबदबे को जर्मनी और अमरीका से चुनौती मिलने लगी । दोनों का उद्योगीकरण तेजी से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ । अमरीकी गृहयुद्ध (1861-65) में अधिक विकसित उत्तरी राज्यों की जीत ने अमरीकी अर्थतंत्र के विकास को तीव्र कर दिया और 1871 में जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण ने उसे तेजी से यूरोप में इंग्लैंड का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बना दिया । 1900 आते आते अमरीका दुनिया का अगुआ औद्योगिक मुल्क बन गया । यहाँ इस बात पर जोर देना होगा कि जिन देशों का उद्योगीकरण बाद में हुआ उनका आर्थिक विकास ब्रिटेन से कुछ अलग तरीके से हुआ । ब्रिटेन के उद्योग पर लंबे समय तक छोटे और मँझोले स्तर के व्यवसायियों का दबदबा रहा जो गलाकाटू होड़ के माहौल में काम करते थे । दूसरी ओर जर्मनी जैसे अर्थतंत्र होड़ या छोटे पैमाने का व्यवसाय नहीं झेल सकते थे क्योंकि उन्हें इंग्लैंड की बराबरी करनी थी । जर्मन उद्योग बड़े पैमाने के उद्योगीकरण की शुरुआत से ही बड़े व्यवसायियों के कब्जे में था । ये उद्यम अपने व्यवसाय के लिए अक्सर राज्य पर निर्भर रहते थे । उन्हें जो अनेक ठेके मिलते वे हथियारों के उत्पादन से जुड़े होते थे । ब्रिटेन के मामले में उद्योग को राज्य का समर्थन अप्रत्यक्ष था । एडम स्मिथ जैसे बुर्जुआ अर्थशास्त्री आर्थिक प्रक्रियाओं में राजकीय हस्तक्षेप के खिलाफ़ थे । उन्होंने माना कि बाज़ार निर्वैक्तिक और तार्किक रूप से काम करता है और आदर्श स्थितियों में समाज के अबाध विकास की गारंटी करता है । 1860 क तक मुक्त व्यापार पर आधारित प्रतियोगितापरक पूँजीवाद ब्रिटिश अर्थतंत्र की विशेषता था । बाद में उद्योगीकृत होने वाले देशों के अर्थतंत्र में शुरू से ही इजारेदारी की प्रवृत्ति दिखायी पड़ने लगी थी । आम तौर पर 1870 दशक से 1890 दशक के बीच ही पश्चिमी अर्थतंत्रों में इजारेदारी (अर्थात अर्थतंत्र के किसी सेक्टर में कुछ बड़े उद्यमों का दबदबा) व्यापक हुई । अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी अर्थतंत्र में 1873 से 1895 तक चलने वाली मंदी ने इजारेदारी की प्रक्रिया को त्वरित कर दिया क्योंकि बड़ी संख्या में उद्योग मजबूरन या तो बंद हुए या अधिक सफल व्यवसायियों को बिक गये जिससे बाज़ार में कम ही उद्योग रह गये । इस प्रक्रिया ने इजारेदारी की प्रवृत्ति को मजबूत किया ।
नयी औद्योगिक ताकतों के उदय के साथ ही उपनिवेशों के लिए होड़ तेज हो गयी । अफ़ीकी महाद्वीप का उपनिवेशीकरण, जिसकोअफ़्रीका की छीनाझपटीकहा जाता है, 1875 से 1900 के बीच पूरा हो गया । अमरीका ने 1890 दशक से, शुरू में स्पेन की कीमत पर, कैरिबियाई और पूर्वी एशियाई देशों में उपनिवेश कायम करना शुरू किया । रूस भी इटली और बेल्जियम के साथ, मध्य और पूर्वी एशिया में अपना भूभागीय नियंत्रण बढ़ाकर, उपनिवेशों की इस दौड़ में शामिल हो गया । तुर्की और चीन का विभाजन किया जा रहा था । और बीसवीं सदी के पहले दशक तक जापान ऐसे उद्योगीकृत देशों की सूची में शामिल हो गया जो कब्जाने के लिए उपनिवेश तलाश रहे थे । दूसरे देशों के भूभाग कब्जाने की इच्छा, बाज़ार और कच्चे माल की जरूरत के चलते बढ़ गयी । कभी कभी सीधे कब्जे की बजाएअनौपचारिकनियंत्रण बेहतर समझा जाता था (मसलन चीन और अर्जेंटिना में) । साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच तनाव बढ़ने से झगड़े पैदा हुए जिनके चलते प्रथम विश्वयुद्ध हुआ । इस युद्ध में जर्मनी का एक मकसद ब्रिटेन और फ़्रांस को कुछ उपनिवेश छोड़ने के लिए मजबूर करके एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमरीका का पुनर्विभाजन करना था ।
उपनिवेशों के लिए इस अंधी दौड़ और उन्नीसवीं सदी के अंत में पूँजीवाद द्वारा प्रदर्शित कुछ नयी विशेषताओं की पृष्ठभूमि में एक सैद्धांतिक प्रश्न के रूप में साम्राज्यवाद का विश्लेषण शुरू हुआ । साम्राज्यवाद की उदारवादी और मार्क्सवादी आलोचना बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों में कमोबेश साथ साथ ही उभरी । विचारधारा के बतौर उन्नीसवीं सदी का उदारवाद आम तौर पर मुक्त व्यापार, प्रतियोगी पूँजीवाद, आर्थिक मामलों में राज्य के न्यूनतम हस्तक्षेप और मताधिकार के विस्तार के जरिए जनवादीकरण से प्रतिबद्ध था । अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी अर्थतंत्र में जब तक ब्रिटेन का बोलबाला रहा तब तक मुक्त व्यापार का सिद्धांत कोई समस्या नहीं था जिसका मतलब था दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों तक ब्रिटेन की अबाध पहुँच । लेकिन जर्मनी और अमरीका जैसे प्रतियोगियों के उभार के बाद इस धारणा को बनाए रखना कठिन हो गया । ब्रिटेन में उदारवादियों के भी एक हिस्से की ओर से माँग होने लगी कि बाहर से आने वाली निर्मित वस्तुओं पर कराधान के जरिए स्थानीय उद्योग को संरक्षण दिया जाए । इसी तरह जर्मनी और अनेक नव उद्योगीकृत देशों ने कराधान के ऐसे ढाँचे विकसित किये जिनका मकसद अपने नवजात उद्योगों की रक्षा करना था । राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने मुक्त व्यापार की धारणा पर लगातार हमला किया । यह तो उदारवादी चिंतकों का भी सरोकार था जो प्रतियोगी पूँजीवाद के लिए इजारेदारियों द्वारा पैदा किए गए खतरे से परेशान थे । इन चिंतकों के सामने यह बात स्पष्ट थी कि उपनिवेशों के लिए अंधी दौड़ और पूँजीवाद में विकसित नयी, नकारात्मक प्रवृत्तियों में घनिष्ठ रिश्ता है । उन्हें किसी वजह से भरोसा था कि ऐसा पूँजीवाद संभव है जोअच्छाहो । इसी ऐतिहासिक संदर्भ में हाब्सन की किताब इंपीरियलिज्म : ए स्टडी (1902) लिखी गयी । हाब्सन की किताब को साम्राज्यवाद की पहली गंभीर उदारवादी आलोचना माना जा सकता है । जल्दी ही साम्राज्यवाद की मार्क्सवादी समझ भी तीन बुनियादी किताबों के जरिए सामने आई : रूडोल्फ़ हिलफ़रडिंग की फ़ाइनेंस कैपिटल (1910); रोजा लक्जेमबर्ग की द एकुमुलेशन आफ़ कैपिटल (1913) और द एकुमुलेशन आफ़ कैपिटल : ऐन एंटी क्रिटीक (1915 में लिखित); और वी आई लेनिन की इंपीरियलिज्म : द हाइएस्ट स्टेज आफ़ कैपिटलिज्म (1916) । हालाँकि इस समझ के निशान उपनिवेशवाद की मार्क्स की आलोचना में खोजे जा सकते हैं लेकिन हिलफ़रडिंग, लक्जेमबर्ग और लेनिन की कोशिश इजारेदारियों के विकास की पृष्ठभूमि में, जिसके चलते साम्राज्यवादी शत्रुता में तेजी आयी थी, मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से साम्राज्यवाद को सैद्धांतिक तौर पर परिश्रमपूर्वक समझने की थी । बाद का तकरीबन समूचा मार्क्सवादी लेखन, अगर इनकी आलोचना हो तो भी, इन अगुआ किताबों से प्रेरित रहा है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उदारवादी विचारधारा में घटोत्तरी बुर्जुआ चिंतकों द्वारा साम्राज्यवाद की आलोचना के प्रति अनिच्छा में प्रतिबिंबित हुई । इस दौर में इस मुद्दे पर उदारवादी मत को गहराई देने वाला एकमात्र लेखन जोसेफ शूम्पीटर का लंबा लेखद सोशियोलोजी आफ़ इंपीरियलिजम्स’ (1919) ही कहा जा सकता है । मार्क्सवादी बौद्धिक परंपरा में इस मुद्दे पर गहरी बहसें हुईं जो आज भी जारी हैं । आज जबकि मार्क्सवादी खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद पूँजी द्वारा अपने प्रभुत्व को कायम रखने की नयी रणनीतियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं तब उनके बौद्धिक प्रयासों में अंतर्निहित विचारों को जानना ज्यादा जरूरी है । एंथनी ब्रेवेर की किताब मार्क्सिस्ट थियरीज आफ़ इंपीरियलिज्म को लंबे समय से इस विषय की सर्वोत्तम प्रवेशिका माना जाता रहा है । इसमें कुछ अत्यंत जटिल मुद्दों और कठिन धारणाओं को स्पष्ट रूप से समझाया गया है जिनका अवगाहन साम्राज्यवाद संबंधी मार्क्सवादी चिंतन की विभिन्न धाराओं को समझने के लिए जरूरी है । ब्रेवेर की किताब को हिंदी में सुलभ कराने वाले इस अनुवाद के जरिए बड़े पाठक वर्ग को मौका मिलेगा कि वह इस क्लासिकल अध्ययन के सहारे साम्राज्यवाद संबंधी मार्क्सवादी सिद्धांतों को अधिक आत्मविश्वास के साथ देखे ।                 

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